रेलगाड़ी की खिड़की में से नज़ारा
मैं स्वप्नीली आँखों से रेलगाड़ी की खिड़की में से गुजरते हुए गावों का नज़ारा देख रहा था । मैने अपनी सीट को सीधा किया, निगाह दूसरी तरफ़ की, और फिर मैं सारी दिशाओं में बेनिर्द्येशी से देखने लगा, एक पल इधर और दूसरे पल उधर । मेरी नज़र रुक रुक कर टहल रही थी । मेरी आँखें अपने आप ही घूम रही थी, जैसे वे कुछ खोज रहीं थीं । मुझे नहीं पता था कि मैं क्या ढूंढ रहा था, किन्तु लगता था कि कोई ऐसी चीज़ थी जिसे मैं खोज रहा था ।
प्रत्येक का जीवन केवल कश्टों से ही भरा था
मेरी निगाहें कई सजे-धजे पुरुषों और महिलाओं पर पड़ीं, जो आकारत्मिक व्यापारी पौषाकों में थे, और उनके हाथों या गोद में ब्रीफ़केस थे । वे मुस्करा तो रहे थे पर बनावटी तौर से, जैसे उनकी मुस्कराहट उनको घेरे हुए दुखों को छुपाने का प्रयत्न कर रही थी । फिर मेरी निगाह एक युवाओं के गुट पर पड़ी, जो ज़ोर ज़ोर से बातें कर रहे थे, किंतु बिल्कुल झूठे भाव से । उनकी हँसी भी बनावटी ही थी, पूर्ण रूप से अभ्यासित और बूझ-बुझौले वाली ताकि वे उन व्यथाओं को छुपा सकें जो उनके जीवन के बीजकोष में थी ।
मेरी निगाह फिर एक वृद्ध दम्पति पर गई, जो एक दूसरे का हाथ हलके से पकड़े बैठे थे, जिनका जिनके चेहरे निराशापूर्ण थे और उन पर चिंता और असंतोशी का भाव न्यौछार था । मेरी नज़रें घूमती रहीं, कभी किसी युवा पर गईं और कभी किसी अधेड़ पर, कभी अमीर पर और कभी गरीब पर, फिर कभी स्वस्थ पर और कभी रुग्ण पर । मैने हर दिशा में केवल दुख ही दुख देखा, और मुझे यही अनुभूती हुई कि प्रत्येक का जीवन केवल कश्टों से ही भरा था ।
सुंदर महिला मेरा नाम जानती थी
मैने आँखें मूंद ली और गहरे सांस लिये – जो पेट से निकलते हैं और धीरे से स्वयं ही समाप्त होते हैं । जब मैने आँखें खोली तो मेरा ध्यान एकदम एक औरत की ओर गया, जो बहुत सुंदर थी – असीमित सुंदर । मैने कभी इतना तेज किसी में नहीं देखा था जो इस सुंदर महिला में था । जिस सौंदर्य नें मुझे आकर्षित किया वह बहरूनी रूप नहीं किंतु एक आंतरिक सुन्दरता थी । ऐसे लगता था जैसे उसका तेज से चेहरा चमक रहा था । उसमे से एक सुनहरा उजाला निकल रहा था, जैसा कि महान सँतों के घेर में होता है, और सच पूछो तो, कम से कम कुछ मात्रा तक प्रत्येक में होता है ।
वह बिल्कुल स्थिर बैठी थी, बेहिचक । उसके दर्शन से मेरे युवा जोवन में मैने सब से अधिक शांतिपूर्वक छाया की अनुभूती की । दूर से ही मैने उसकी आँखों में एक जोश की चमक देखी, वह जोश जो प्राय: बच्चों के स्वभाव में होता है, निर्मलता और शुद्धी से भरा जोश जो अभी सांसारिक जीवन की भावनाओं के दूषण से बचा हुआ होता है । गाड़ी कई स्टेशनों पर रुक कर चलती गई, जब मैं अपना साहस बढ़ा कर उठा और उस मोहिनी स्त्री की ओर गया । उस की ओर जाने से मेरे दिल को अतुल्य ठंडक मिली । मैं संकोचपूर्वक उसके सामने वाली सीट पर बैठ गया, बिल्कुल चुपचाप, बिना दोनो में से एक शब्द भी बोले । इस पल मेरे दिल में समय की धारणा तक नहीं थी । मैं आवाक रह गया, ” क्षमा करना, समीर समय क्या हुआ है ?” जब उस स्त्री नें पुछा ।
वह मेरा नाम जानती थी !! यह औरत अजनबी तो थी, पर भगवान जाने इसे मेरा नाम कहां से पता लग गया ।
समय अब ही होता है, और सदैव अब ही होता रहेगा
मैने एक बुत की तरह जेबवाली पुरानी घड़ी को देखा और हकलाते हुए जैसे निरस्त्रित भाव में कहा, “उम्म, दस बजकर पंद्रह मिनट ।”
उस स्त्री की निगाहें फिर मुझ से मिलीं, जैसे उसकी दृश्टि मेरे अस्तिव के बीजकोष पर थी, फिर वह बोली, “समय अब है” । उसका बोलचाल समुद्र की वायु की तरह सुशील था, “समय अब ही होता है, और सदैव अब ही होता रहेगा, इस बात को कदाचित न भूलना, समीर ।”
मैने गाड़ी में मेरे सामने बैठी हुई इस आधुनिक रहस्यवादी महिला को अविश्वास से देखा । मैने व्याकुल हो कर प्रश्न किया “आप मेरा नाम कैसे जानती हैं ?”
नाम तो वर्गीकरण होते हैं
उसने मेरे अस्तित्व को गम्भीरता से देखा । “नाम तो अनर्थ होते हैं, वे वर्गीकरण होते हैं और हमारे अंतःसम्बोधन के देखने में रुकावट डालते हैं, वे हमारे अस्तित्व के एकत्व के भाव को दूर रखते हैं । यदि तुम सच जानना चाहते हो तो समीर, सबसे गहन और हमारी प्रक्रिति के मूल सिद्धांतों के अनुसार, मैं ही तुम हूं ।”
“मैं ही तुम हो, क्या आप में दूरसंवेदन की शक्ति है ?” मैने यह प्रश्न संकोचवश किया ताकि मैं अपने आप को बहुत ज़्यादा शर्मिन्दा न कर लूं ।
यदि दीवारें न हों तो फिर खिड़कियां बनाने की आवश्यकता ही क्या पड़ी है
महिला ने हँसना शुरू कर दिया । उसकी हँसी के कारण मेरे चेहरे पर भी मुस्कराहट छा गई । “हां समीर मैं सचमुच में दूरसंवेदानिय हूं, क्या हम सभी नहीं हैं ?”, उसने पूछा और फिर वह कहने लगी,” दूरसंवेदन पूर्ण रूप से स्वाभाविक है । मूल है अपने मन को शांत रखना, और उन विकर्षणो से मुक्त होना जो हमारे मन को ग्रहण करते हैं । यह कहा जाता है कि ऐसी खिड़कियां होती हैं जिन में से हम एक दूसरे में जा सकते हैं, पर यदि दीवारें ही न हों तो फिर हमे खिड़कियां बनाने की आवश्यकता ही क्या पड़ी है ?”
“जहां मैं रहती हूं, वहां तुम और मैं में कोई अन्तर नहीं होता”, वह कहती गई, “हमारे चैतन्यों के बीच दीवारें नहीं होती, न ही हमारे दिलों के बीच, अतः जिसे तुम दूरसंवेदनुभूति कहते हो, मेरे लिये वह केवल चिति के एक भाग से दूसरे भाग में जाना है ।”
मैं अविश्वासनीय भाव से ताकता रहा, जब अचानक मेरे दिमाग मे एक विचार ऐसे आया जैसे कि किसी ने हथौड़े से एक कील मेरे सिर में ठोकी हो – यह महिला दुखों से मुक्त थी । वह भिन्न थी बाकी सब लोगों से जिनसे अभी तक मेरी भेंट हुई थी, क्यों कि यह औरत कश्टों से कदाचित मुक्त थी । उसने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया था, अतः उसमे दूसरों को ऐसी स्वतंत्रता दिलवाने का सामर्थ्य भी था ।
वह स्त्री गाड़ी से उतरने के लिये धीरे से उस शोभा से उठी जैसे प्रातः का सूर्य निकलता है । डरते डरते मैने पूछा, “क्या मैं आप से फिर कभी मिलूंगा ?”
यहां हूं, सदैव
वह हँसने लगी, उसी ढंग से जो अब तक मुझे प्यारा लगने लगा था । “समीर मैं यहां हूं, सदैव । मुझे देखना तुम्हारे पर निर्भर करता है । मेरे दस हज़ार नाम हैं, और मैं इतने ही भिन्न रूपों में निवास करती हूं । मेरा चेहरा देखा जा सकता है बच्चों की मासूम आँखों में, एक हिमकण के ह्रिदय में और सूर्यास्त की महिमा में । मेरी आवाज़ सुनाई देती है हँसों के गुट के गानों में, चढ़ते हुए ज्वार-भाटे की लहरों में और वायु की सरसराहटों में । मैं अब यहां हूं पर अगले पल वहां होऊंगी; पर तुम्हारा देखने का निर्णय ही मेरे लिये बहुत है । समीर तुम जहां भी हो, मैं भी वहीं हूं, और तुम मुझे वहीं पा जाओगे ।“
“सदैव ?” मेने पुछा ।
उस ने गाड़ी से उतरते हुए सिर हिला कर कहा, “सदैव” ।