भिखारी मानव  

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दोपहर का सूर्य

गलियों की काली पटरियों पर दोपहर का सूर्य अपनी धूप से तीव्र गर्मी की पर्तें बना रहा था । – टायरों की चींकों और गाड़ियों के होर्न की ऊंची ऊंची बेहूदगी आवाज़  से मिश्रित हो रही थी समुद्रिक चिड़िया की चहक । अख़बार और पत्रिका बेचने के लिये सौदागर सड़क के कोनों से हौका लगा रहे थे । महांनगरी के  केंद्रीय व्यापारी इलाके के इस व्यस्त रेल स्टेशन से अन्दर – बाहर जा रहे थे अमीर और गरीब, जवान और बूढ़े, हर रंग शकल और नाप के लोगों के झुंड ।

एक भिखारी

एक भिखारी रेल स्टेशन के प्रवेश द्वार के समीप बैठा हुआ था । एक पुराना सा लाल थैला उस के सामने खुला हुआ था ।  क​ई लोग भिखारी के इर्द गिर्द हो कर इधर या उधर से जा रहे थे । एक काली पौशाक वाला बना ठना व्यापारी भिखारी के पास से गुजरा और जल्द से कुछ सिक्के उसके थैले में फैंक कर चला गया । एक बुढ़िया छड़ी के सहारे चल कर अयी और वह भी कुछ सिक्के उस खुले हुऐ थैले में फैंक कर टहलते हुए चली गयी । एक युवा औरत हाथ में एक किताबों से भरा थैला ले कर धीरे धीरे चलती हुई आई, और उसके थैले में कुछ पैसे डालने के लिये पल भर रुकी, और फिर चली गयी ।  भांति भांति के लोग बिना रुके भिखारी की ओर  पैसे फैंक कर चले गये ।  लगभग सभी ने ऐसा बिना विचार ही किया । कोई विरला टावां, जैसे वह किताबें के थैले वाली औरत, भिखारी को कुछ पैसे देने से पहले एक पल देखने और सांस लेने के लिये रुकता था ।

भिखारी सब  लोगों को समान मनोव्रिति से शांत हो कर निखार रहा था । वह किसी को भी दुसरों के प्रति प्राथमिकता नहीं दे रहा था ।  जैसे भी हों, अमीर या गरीब, युवा य बूढ़े, वह सभी लोगों को एक ही व्यवहार और भाव और समान सम्मानता से देख रहा था । वह बोलता तो नहीं था किन्तु सदैव उस के चेहरे से एक धीमी सी मुस्कान निकलती थी । ध्यान से देखने से लगता था कि भिखारी एक ख़ामोश मुस्कान वाला तेजस्वी मनुश्य था जो संसार  के अन्तर्तम रहस्यों से विदित था ।  यह भिखारी जीवन के सर्वगंभीर सत्य को शायद जान चुका था ।

संध्याकाल

यह दिन भी ऐसे ही बीत गया, जैसे पिछले कई दिन बीते थे और भविश्य के दिन गुजरेंगे । पश्चिम में लग रहा था जैसे गगन्चुम्बी भवनों के बीच सूर्य की किरणे झांक रही हों । संध्याकाल के आगमन का स्वागत हो रहा था । भिखारी धीरे से उठा । वह आकाश की तरफ़ बाहें कर के सुशीलतापूर्वक अंगड़ाई लेने के बाद, आराम से झुक कर पांव पर हाथ रख कर उठा । उस ने धर्ती से थैला उठाया । थैला भरा हुआ अतः भारी था । थैले को झुला कर कंधे पर डालने के बाद, उस ने व्यस्त पगडंडियों पर चलना शुरू किया ।  भिखारी धीरे धीरे और ध्यान से एक नपी-तुली गति से चल रहा था ।

  भिखारी  एक पार्क में पहुंचा

भिखारी, नगर के कई खंड चल कर, एक पार्क में पहुंचा । पार्क का वातावर्ण शांतिपूर्वक और निर्मल था । उस की सीमा पर सिन्दूर के विशाल और शाही चेलबार के पेड़ पहरा दे कर पार्क को  नगर की भाग दौड़ से बचा रहे थे । पार्क की हरियाली का द्रिश्य और फूलों की सुगंध इस भिखारी को सदैव असीमित प्रसन्नता देती थी ।  इस अद्भुत पार्क में घुसते ही जीवन में एक आनंदमय भावना छा जाती थी ।

इस असाधारन सांझ को, क​ई लोग इस पार्क की शांती और फूलों का आनंद ले रहे थे, और इसकी पत्थरी पगडंडियों पर टहल कर इस हीरे के उपहार का सम्मान कर रहे थे । बच्चे प्रचंडता से खेल रहे थे, प्रेमी हाथों में हाथ डाल कर टहल रहे थे, और एक बूढ़ा दाने खिला रहा था समुद्री चिड़िया के समूह को । प्रतीत होता था कि पार्क में प्रस्थान एक संकेत था कि धीरे धीरे चलो और जीवन रूपी फल का आम तौर से अधिक आनंद पाओ ।

भिखारी ने सारे सिक्के फव्वारे में डाल दिये

पार्क के केंद्र में एक फव्वारा था । यह फव्वारा संगमरमर​ और रेतीले पत्थरों से बना हुआ था । फव्व्वारे के शिखर पर एक सुंदर परी की तराशत थी ।  पानी ऊपरी स्तर से बह कर नीचे वाले स्तर में एक विशाल गोलधारा बना रहा था । सोचपूर्वक भिखारी फव्वारे तक गया, और फिर रुका । उस ने नीचे धरती पर थैला रखा, फिर उठाया और दिन में मिले सारे सिक्के फव्वारे में डाल दिये ।  यह धन गरीबों की सहायता के काम में लाया जाता था ।  लोगों की सहायता ही उस की सर्वोत्तम  खुशी थी ।  वह लोगों को दूसरों को देने की सहायता कर के प्रसन्न था क्योंकि सच्चा सुख देने में ही मिलता है ।  भिखारी को सब से ज्यादा आनंद तब आता था जब कोई सहायतापात्र नील गगन में उड़ती हुई चिड़िया की तरह अपने आप को स्वतंत्र मान लेता था ।

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