ध्यान के अभ्यास से कुछ नहीं मिलता
गौतम बुद्ध जी की एक कहानी ध्यान के अभ्यास के अभिलाभ का प्रतीक करती है । एक शिष्य ने महात्मा बुद्ध से पूछा, “आप को ध्यान के अभ्यास से क्या मिलता है ?”
गौतम बुद्ध जी ने उत्तर दिया, “मुझे इस अभ्यास से कुछ भी नहीं मिलता” ।
असमंजस हो कर शिष्य ने पूछा ,”तो फिर आप ध्यान का अभ्यास करते क्यों हो ?”
महत्वपूर्ण है जो मैने इस अभ्यास से खोया
महात्मा बूद्ध जी ने उसके जीवबीज को ताका । उत्तर दिया बुद्ध जी ने “यह महत्वपूर्ण नहीं है कि मैने ध्यान अभ्यास में क्या पाया । सब से अधिक महत्वपूर्ण है जो मैने इस अभ्यास से खोया । मैं ध्यान अभ्यास से भय, क्रोध, आशंका, नफ़रत, चिंता, बेचैनी, बेताबी, मृत्यु का डर इत्यादी को खो देता हूं । ध्यान अभ्यास से इन सब को खो कर ही, मैं स्वयं की वास्तविक प्राक्रिति को अनुभव कर सकता हूं ” ।
कई लोग अलौकिक शक्ति, मायामय वरदान या कार्मिक कृपादृष्टि की प्राप्ति के लिए ध्यान का अनुकरण करते हैं ।
वर्तमान के पल में सब संभावनाओं के लिए अनिर्णित रहें
ध्यान अभ्यास और विषय का इस दृष्टिकोण से अनुकरण करने वाले केवल निराश ही होते रहेंगे, क्योंकि उन्होंने इससे एक उम्मीद बांध ली है । जब भी किसी क्रिया से उम्मीद बांध ली जाती है, स्वाभाविक रूप से निराशा की ही आशा की जा सकती है । अच्छा रहेगा कि वर्तमान के पल में सब संभावनाओं के लिए अनिर्णित रहें ।
ध्यान के लाभ की आशा बना लेने की अपेक्षा इसे केवल बैठने के अभ्यास के लिए ही करें । बैठ कर ध्यान का अभ्यास करने मात्र से ऊंचा कोई और उद्देश्य नहीं हो सकता । यदि इस अभ्यास के कारण हम कुछ खो जाएं तो यह प्रशंसनीय और आनंदमय होगा । अन्यथा, अपनी दृड़ता के कारण बैठे रह कर ध्यान के अभ्यास की क्षमता बना लेना तो स्वयं में ही खुशी की बात है । हम बैठे रहने मे इसी लिए सफ़ल हुए क्योंकि हम ध्यान का अभ्यास कर रहे थे ।
मनुष्य के हर दुख की जड़ है एक सुनसान कमरे में अकेले न बैठ सकना
अपने अनुभव से, मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि किसी भी दिन मेरी ध्यान की बैठक निष्फल नहीं हुई । मेरा हर अभ्यास फलदायक रहा है, चाहे वह दो घंटे का सतोरी का आनंद हो या मैं झुक कर आधा सोया हुआ होऊं । मेरे जीवन में हर बार का अनुभव लाभदायक रहा है । फ़्रांस के प्रसिद्ध दर्शनशात्री और गणितज्ञ ब्लेज़ पास्कल ने कहा था, “मनुष्य के हर दुख की जड़ है एक सुनसान कमरे में अकेले न बैठ सकना” ।
मन का भूत और भविष्य के बीच निरन्तर दोलन
यह बात हमें फिर गौतम बुद्ध की ध्यान से अनभिलाषित दशा को खो जाने की रूपक कथा की ओर ले जाती है । मन का भूत और भविष्य के बीच निरन्तर दोलन ही हमारे असन्तोष का मुख्य कारण है । भूत और भविष्य से संबंध के बिना मन का अस्तित्व अक्सर नहीं होता । ऐसे कर के देखो, अपने मन की ओर गौर करो, और फिर अगले विचार आने की प्रतीक्षा करो, आम तौर पर यह विचार या तो भूतकाल के बारे में होगा और या भविष्य के बारे में, मन यहां और वर्तमान में नहीं होता ।
यह विचारधारा हमें ज़ैन की प्रथा के हुइ को के निम्नलिखित आख्यान की ओर ले जाती है ।
एक दिन हुइको अपने बेचैन मन से हताश हो कर गुरू बोद्धिधर्मा को कहा, “स्वामी जी, मन के उत्तेजित होने के कारण में पागल हो रहा हूं, कृपया इसे वश में करने के लिए सहायता कीजिए ।”
बोद्धिधर्मा ने उत्तर दिया, “कल सुबह आना, खोज कर अपने मन को साथ ले आना और तुम्हारे लिए मैं उसे ठीक कर दूंगा ।”
हुइको ने मन को ढूंढने में सारी रात बिता दी, पर उसे मन नहीं मिला । उसने इधर उधर, ऊपर नीचे, समीप और दूर स्थानों मे ढूंडा पर मना न यहां था, न वहां । सवेरे आकर उसने गुरू जी को बताया ,” मैने मन को बहुत ढूंढा पर वह कहीं भी नहीं था” ।
बोद्धिधर्मा ने कहा, “देखो, मैने अब तुम्हारे मन को ठीक कर दिया है ” ।
जब हमें आभास हो जाता है कि मन न तो यहां है और न वहां, तभी हम ध्यान में आगे बढ़ सकते हैं । यह सोच आप के अहंवाद को झटका दे सकती है । हम सब अपने आप को सब से अलग समझते हैं, और हमारे मन का एकीकरण हमारे अहंवाद को झूठी सहानुभूति देता है । किंतु अपनी प्राक्रिति को जानने के लिए, हमारी आंतरिक बुद्ध तक पहुंचने के लिए, हमें विचारों को त्याग कर आगे बढ़ना होगा ।
ध्यान का सारांश
तिब्बत के एक ध्यान गुरू से पूछा गया “ध्यान क्या है” ?
एक विचार के अंत और अगले विचार के आरंभ के बीच एक विराम होता है, इस विराम को लंबा करना ही ध्यान का साराश है ।
विचारों के बीच के समय को विकसित करना, और बिना चूके वर्तमान में बस जाना, संक्षिप्त रूप में यही ध्यान है । अपने आप ही इस क्रिया से सारे दिन के हर काम करते हुए सचेत रहना फिर स्वाभाविक रूप से आ जाता है । ध्यान का अभ्यास नियमित करने पर हम हर पल की क्रिया में सचेत हो जाते हैं । तो यह है ध्यान का सारांश और ध्यान का जीवन ।